है जो शख्स, मेरे अंदर, ये मुझको पहचानता नहीं है | ज़िद करता है, मिलने की 'तुमसे' अब ये मेरे काम का नहीं है | कहता हूँ जा अकेला छोड़ दे मुझे, अंजानो संग जीना अब आसां नहीं है | पर सोचता हूँ, मान लूँ इसकी बात, भुलाना 'तुमको' भी तो आम नहीं है |
ज़ुल्फ़ें तेरी, जो बिखरी थीं, मेरी उँगलियों में, उलझी थीं | सुलझाने में, उन ज़ुल्फ़ों को, कुछ ज़ुल्फ़ें, मुझसे टूटी थीं | टूटी हुईं, तेरी ज़ुल्फ़ें मैंने, पन्नो में दबा के, रख ली थी | पलटे जो पन्ने, तो याद आया, लहराती कभी, ये ज़ुल्फ़ें थीं | छुआ इन्हे तो, लिपट गयीं, जैसे ये पहले, लिपटीं थीं | भूरी सी, कभी ये ज़ुल्फ़ें तेरी, चेहरे पर मेरे, बरसीं थीं |
वो भी इक वक़्त हुआ करता था, उसकी मोहब्बत कभी मैं हुआ करता था | खो जाता था उसकी बातों में मैं, जब लबों से उसके मेरा ज़िक्र हुआ करता था | वक़्त थम जाता था उसकी ज़ुल्फ़ों तले, जब गोद में उसके मेरा सिर हुआ करता था | दिन गुज़ारती न थी बिन बतियाए मुझसे, ऐसा मैं उसका बीता कल हुआ करता था | इक सपना था शायद जो टूट गया, कि वो मेरा और मैं उसका हुआ करता था |
न जाने कितने जज़्बात लिख कर मिटा देता हूँ, कहीं ज़ाहिर होने से तू नाराज़ न हो जाये, इसलिए अपना दर्द सीने में दबा लेता हूँ | ये फासले अब दम घोंटते हैं मेरा, तुझे दर्द न हो इसलिए मुस्कुरा देता हूँ | अक्सर बह जाते हैं तन्हाईयों में मेरे आँसू, उन्हें तकिये पर ही कहीं सुखा देता हूँ |