Sunday, July 12, 2020

शायद तुम


शायद तुम, कभी समझ न पाओ । 

वो मायूस सुबह-से उगते सूरज, 

वो कश्ती-सी डूबी शामें। 



शायद तुम, कभी समझ न पाओ । 

वो सालों-से लंबे हर दिन, 

वो सदियों-सी लंबी रातें। 



शायद तुम, कभी समझ न पाओ ।  

वो सुई-से चुभते घड़ी के काँटे, 

वो ज़ख़्मों-सी कुछ गहरी यादें । 



शायद तुम, कभी समझ न पाओ । 

वो कांच-से टूटे सच्चे सपने, 

वो सच-सी लगती झूठी बातें। 


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